सूखे होठों में भीगी ओस ढूँढने चले हैं हम
सुनते हैं रूखे रुखसार में भी समंदर बहते हैं
चेहरे की नरमी में घुली है आंसूओं की बेशर्मी
सुनते हें बेबसी नमकीन होती है
बहती है आंसू बन बंजर चेहरों पे
अरमानों के ज़ख्म अब बह चले हैं शायद...
रविवार, फ़रवरी 07, 2010
शुक्रवार, जनवरी 22, 2010
श्वेत
श्वेत अम्बर से सजाया करिया तन को...
पीत वर्णित रस रंजित मन को
नग्न सांसें वृस्मिति कारक॥
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का करूं मोहन अइयो जो हमरे घर तुम॥
का बतलाऊं तुमका पुछिहो हमसे प्रश्न तुम ॥
मोहन हौ अबहूँ तुम हम रहे कोऊ कबहूँ
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हाँ जलिबय जब गंगा गोद हम
तब ना हाथ बंधियों अपने तुम
आइबे धुआं बन जब तुम तक
राख छोड़ आपन करमन की पाछे
तब न पूछ्यो प्रश्न हमसे तुम
बस जैबे तोहरे चरनन में हम ॥
पीत वर्णित रस रंजित मन को
नग्न सांसें वृस्मिति कारक॥
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का करूं मोहन अइयो जो हमरे घर तुम॥
का बतलाऊं तुमका पुछिहो हमसे प्रश्न तुम ॥
मोहन हौ अबहूँ तुम हम रहे कोऊ कबहूँ
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हाँ जलिबय जब गंगा गोद हम
तब ना हाथ बंधियों अपने तुम
आइबे धुआं बन जब तुम तक
राख छोड़ आपन करमन की पाछे
तब न पूछ्यो प्रश्न हमसे तुम
बस जैबे तोहरे चरनन में हम ॥
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