सूखे होठों में भीगी ओस ढूँढने चले हैं हम
सुनते हैं रूखे रुखसार में भी समंदर बहते हैं
चेहरे की नरमी में घुली है आंसूओं की बेशर्मी
सुनते हें बेबसी नमकीन होती है
बहती है आंसू बन बंजर चेहरों पे
अरमानों के ज़ख्म अब बह चले हैं शायद...
रविवार, फ़रवरी 07, 2010
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