रविवार, फ़रवरी 07, 2010

बेवजह

सूखे होठों में भीगी ओस ढूँढने चले हैं हम
सुनते हैं रूखे रुखसार में भी समंदर बहते हैं
चेहरे की नरमी में घुली है आंसूओं की बेशर्मी

सुनते हें बेबसी नमकीन होती है
बहती है आंसू बन बंजर चेहरों पे
अरमानों के ज़ख्म अब बह चले हैं शायद...