बुधवार, सितंबर 09, 2009

सबब

सैर पे निकले थे दो नंगे पाँव
पीछे छोड़ एक गीले आँचल की छाँव

कभी मिटटी तो कभी पक्की सड़क की गोद में
दौडे हम कभी ख़ुद की कभी रहबर की खोज में...

सुनते हैं दौड़ते रहना ही ज़िन्दगी का सबब है...मर्म है...
हाँ मंजिलों के इस बाज़ार में ख्वाहिशें हैं...शर्म है...

होंगे कभी शर्मसार मेरे पाँव बीच बाज़ार में...
कहते हैं बस गई है मेरी रूह इसी इंतज़ार में॥

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